लोकगीतों में ग्रामीण समाज और सांस्कृतिक परंपराएँ
Abstract
लोकगीत ग्रामीण समाज की आत्मा होते हैं, जो उसकी सांस्कृतिक परंपराओं, लोकाचार, आस्थाओं, रीति-रिवाजों, और सामाजिक संरचनाओं को संजोए रखते हैं। ये गीत लोकजीवन के सुख-दुख, प्रेम, विरह, ऋतु परिवर्तन, धार्मिक अनुष्ठानों, सामाजिक उत्सवों, और जीवन के विभिन्न चरणों को व्यक्त करते हैं। ग्रामीण समाज में लोकगीतों की प्रमुख भूमिका विवाह, जन्म, त्योहारों, कृषि कार्य, और धार्मिक अनुष्ठानों में देखी जाती है। लोकगीत केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं होते, बल्कि वे पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान, नैतिक मूल्यों, और परंपराओं के संरक्षण का भी कार्य करते हैं। इनके माध्यम से समाज की सामूहिक स्मृति संरक्षित रहती है और नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराया जाता है। ग्रामीण परिवेश में लोकगीतों के रूप अनेक होते हैं, जैसे - सोहर (जन्मोत्सव गीत), विवाह गीत, मल्हार (वर्षा ऋतु के गीत), बिरहा (विरह गीत), भजन-कीर्तन (धार्मिक गीत), और कृषि गीत। इनमें लोकसमाज की आशाओं, संघर्षों, और जीवनशैली का जीवंत चित्रण मिलता है। हालांकि, वैश्वीकरण और आधुनिकता के प्रभाव से पारंपरिक लोकगीतों की लोकप्रियता में कमी आई है। मीडिया और डिजिटल माध्यमों के बढ़ते प्रभाव के कारण लोकगीतों का मूल स्वरूप भी प्रभावित हो रहा है। इसके बावजूद, लोकगीत आज भी ग्रामीण समाज की संस्कृति और पहचान को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनका संरक्षण और संवर्धन भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के लिए आवश्यक है।
How to Cite
डॉ. हंसा कुमारी मीना. (1). लोकगीतों में ग्रामीण समाज और सांस्कृतिक परंपराएँ. ACCENT JOURNAL OF ECONOMICS ECOLOGY & ENGINEERING (Special for English Literature & Humanities) ISSN: 2456-1037 IF:8.20, ELJIF: 6.194(10/2018), Peer Reviewed and Refereed Journal, UGC APPROVED NO. 48767, 10(2), 10-14. Retrieved from https://ajeee.co.in/index.php/ajeee/article/view/5082
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